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पानीपत का मैदान, 1526 की गर्मियों की एक सुबह। यह जगह, जो कभी सुनसान-सी हुआ करती थी, अब इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक का गवाह बनने को तैयार थी।
एक तरफ था इब्राहीम लोधी—उसके पास लाखों की सेना, भारी-भरकम हाथी, तेज़ घोड़े, और सत्ता का वो घमंड जो उसे अजेय समझता था। दूसरी तरफ था बाबर—महज़ 12 हज़ार सैनिकों के साथ, न तो संख्या में उसका दम था, न ही इस ज़मीन से कोई गहरा नाता। लेकिन बाबर के पास था युद्ध का हुनर, समय को पढ़ने की समझ, और तुर्की की वे तोपें जो उस दौर में हिंदुस्तान के लिए बिल्कुल अजूबा जैसी चीज थीं।
बाबर समझता था कि सीधे टकराव का मतलब होगा दुश्मन से हार। इसलिए उसने चुनी अपनी पुरानी, आज़माई हुई तुर्क-मंगोल वाली रणनीति—जिसे वो "तुलूग़मा" कहता कहा करता था।
उसने कई दिन पहले ही अपनी सेना को तैयार करना शुरू कर दिया। अपनी छोटी-सी फौज को तीन हिस्सों में बांटा—बीच का हिस्सा और दो किनारों पर पंखों की तरह फैले दो दल थे। उसकी योजना थी दुश्मन को सामने से उलझाकर, बगल से घेर लेने की।
लेकिन असली कमाल था उसका तोपखाना जो शाही तोपें तुर्क लड़ाके अक्सर किया करते थे। बाबर ने अपनी तोपों को खाइयों में इस तरह छिपाया कि लोदी की सेना को भनक तक न लगे। इन तोपों को संभाल रहा था उस्ताद अली क़ुली—एक ऐसा योद्धा जो बारूद और लोहे की ज़ुबान में बात करता था।
बाबर ने लकड़ी और बैलगाड़ियों से एक दीवार बनाई, जिसे रस्सियों से बहुत ही मजबूती के साथ बांधा गया था—जैसे कोई मज़बूत बाड़। इस बाड़ के पीछे उसकी सेना छिपी रही, और दुश्मन की नज़रों से भी बची रही।
लोधी ने अपने हाथियों को आगे भेजा। भारी-भरकम हाथी ज़मीन को रौंदते हुए बढ़े, लेकिन जैसे ही वो तोपों की रेंज में आए, चारों तरफ धमाके गूंजने लगे और धुआं- धुँआ सा उठा, और लोधी की सेना एकदम से पंक्तियाँ में बिखर गईं।
हाथी बेकाबू हो गए। वे अपने ही सैनिकों को कुचलने लगे। लोदी की सेना में अफरा-तफरी मच गई और उसकी सेना के हाथी घोड़े उसकी खुदकी सेना को ही कुचलने का काम करते रहे।
तभी बाबर ने अपने दोनों किनारों की फौज को हुक्म दिया, "घेर लो!" बस, फिर क्या—लोधी की सेना एक घेरे में फंस गई। सामने से तोपों की मार, पीछे से घुड़सवारों का हमला, और बीच में फंसे लोधी के सिपाही।
इब्राहीम लोधी का सारा घमंड मिट्टी में मिल गया।
यह कोई आम लड़ाई नहीं थी। यह थी एक दिमाग की जीत। बाबर ने दिखा दिया था कि युद्ध तलवारों से नहीं, दिमाग और सूझबूझ से भी जीता जाता है। उसने बारूद से ज़्यादा अपनी बुद्धि पर भरोसा किया। और यही बन गई उसकी पहचान—वो न सिर्फ़ एक योद्धा था, बल्कि एक विजेता था। वह न सिर्फ़ एक तैमूरी शहज़ादा बना बल्कि हिंदुस्तान का पहला मुग़ल बादशाह भी बना, जिसे आज इतिहास के पन्नों में मुग़लिया सल्तनत के संस्थापक के रूप में जाना जाता है l
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