बीजापुर (विजयपुरा) का इतिहास और अद्भुत धरोहरें जानिए। गोल गुम्बज़, इब्राहीम रोज़ा, जामा मस्जिद जैसी अदिलशाही इमारतों की अनोखी दास्तान
जब आप कर्नाटक की सरज़मीन पर क़दम रखते हैं और बीजापुर (आज का विजयपुरा) की गलियों से गुज़र रहे होते हैं, तो ऐसा लगता है जैसे वक़्त थम सा गया हो। हर पत्थर, हर दरवाज़ा, हर गुम्बद आपको सदियों पुरानी दास्तानें सुनाना चाहता है और चीख़ चीख़ कर गवाही देता है उस दौर की जब यहाँ उस वक़्त के सुल्तान, बादशाह, नवाब और राजा महाराजा राज किया करते थे और उनकी शान में बड़े बड़े कसीदे पढ़े जाते थे।
विजयपुरा – जिसका मतलब है फ़तह का शहर – कभी चालुक्यों की रियासत था, फिर यादवों का, फिर खिलजी और बहमनी सल्तनत की रियासतों का हिस्सा बना। लेकिन इसका असल रंग-ओ-रूप तब निखरा जब यहाँ अदिलशाही सल्तनत क़ायम हुई। यही वो दौर था जब बीजापुर इल्म, फ़न, तिजारत और बड़ी बड़ी खूबसूरत तामीरात का मरकज़ बना।
- बीजापुर का इतिहास और अदिलशाही सल्तनत की विरासत
- गोल गुम्बज़ – दुनिया का सबसे बड़ा गुंबद
- इब्राहीम रोज़ा – ताजमहल का प्रेरणास्रोत
- जामा मस्जिद – बीजापुर की इबादतगाह और वास्तुकला
- अन्य ऐतिहासिक धरोहरें और बीजापुर का सांस्कृतिक महत्व
गोल गुम्बज़ – जहाँ आवाज़ें आज भी जीती हैं
बीजापुर शहर के दिल में खड़ा गोल गुम्बज़ एक ख़ामोश शहंशाह की तरह है और उस दौर की यादें आज भी ताजा कर देता है। ये सुल्तान मुहम्मद आदिल शाह का मक़बरा है, मगर लगता है जैसे ये उसकी ताक़त और हुकूमत की गवाही दे रहा हो। इसका गुम्बद जब आसमान से बातें करता है, तो इंसान हैरत में पड़ जाता है – इतना बड़ा गुम्बद, बिना किसी सहारे के! और फिर जब आप इसकी “व्हिस्परिंग गैलरी” में जाकर धीरे से कुछ कहते हैं, तो आपकी आवाज़ सात-आठ बार गूंजती है। जैसे वक़्त आपको जवाब दे रहा हो – कि यहाँ सदियों पहले भी आवाज़ें गूंजी थीं और आज भी गूंजती हैं।
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गोल गुम्बज की ऐतिहासिक स्मारक |
अगर कभी आपने ताजमहल देखा हो और फिर इब्राहीम रोज़ा को देखें, तो महसूस होगा कि दोनों में कोई रूहानी रिश्ता है। इब्राहीम आदिल शाह II का ये मक़बरा इतना खूबसूरत है कि इसे “ताजमहल का पेशरू” कहा जाता है। काले पत्थर की महीन नक्काशी, जालीदार खिड़कियाँ, बुलंद मीनारें – सब मिलकर एक ऐसा मंज़र पेश करती हैं कि इंसान देर तक बस देखता ही रह जाए। इतिहासकार है कहते हैं कि शाहजहाँ ने ताजमहल की तामीर का ख़्वाब इसी इमारत को देखकर देखा था।
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इब्राहिम रौज़ा बीजापुर |
बीजापुर की जामा मस्जिद में दाख़िल होते ही एक सुकून का एहसास होता है जो दिल को छू लेता है। वसीअ सहन, ऊँचे मेहराब और दीवारों पर लिखी क़ुरआन की आयतें – सब मिलकर ऐसा मंजर पेश करती हैं कि लगता है जैसे रूह सीधे ख़ुदा से हमक़लाम हो रही हो। ये सिर्फ़ एक मस्जिद नहीं थी, बल्कि उस वक़्त में इल्म और तहज़ीब का मरकज़ भी रही। यहाँ नमाज़ भी होती थी और नई सोच का दीया भी जलता था यानी मदरसा का संचालन भी होता था।
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बीजापुर की जामा मस्जिद |
बीजापुर का क़िला जब अपनी आलीशान दीवारों से आपको घेरता है, तो उसकी बुर्ज़ पर रखी मलिक-ए-मैदान आपको हैरानी में डाल देती है। ये कांसे की तोप, 55 टन वज़नी, दुनिया की सबसे बड़ी तोपों में से एक है। आज ये ख़ामोश है, मगर कभी इसने दक्कन की सरज़मीन को फ़तह करने में अहम क़िरदार निभाया था। आज के लोग सोच कर दंग रह जाते हैं कि सदियों पहले इतनी भारी तोप को इस ऊँचाई तक कैसे पहुँचाया गया होगा।
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बीजापुर का मलिक ए मैदान |
बीजापुर के क़िले के दरवाज़े, पुराने हमाम और महल – सब अपने अंदर सदियों की कहानियाँ बयां करते हैं। लगता है जैसे हर दरवाज़ा आपको रोककर कहना चाहता हैं – “रुक जाओ, एक बार मेरी दास्तान भी सुन लो।”
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बीजापुर के पुराने हमाम और महल |
बीजापुर सिर्फ़ एक शहर नहीं, बल्कि तारीख़ की वो क़िताब है। यहाँ चालुक्य, बहमनी, अदिलशाही, मुग़ल, निज़ाम, मराठा और अंग्रेज़ – सब आए और अपनी हुक़ूमत की दास्तान लिख कर चले गए। मगर जो रह गया, वो हैं ये इमारतें, ये गुम्बद, ये दीवारें, जो आज भी इंसान से कहती हैं:
"हम मिट्टी के ढेर नहीं, तुम्हारे माज़ी, तुम्हारी तहज़ीब की रूह हैं। हमें देखो, हमें सुनो, और हमें याद रखो।
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दोस्तों, आपको बीजापुर की कौन सी इमारत सबसे ख़ूबसूरत लगती है? Comment में बताइए। और ऐसे ही इतिहास से जुड़े हिंदी ब्लॉग पढ़ने के लिए हमारे चैनल को सब्सक्राइब जरूर करें:
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